Monday, May 21, 2018

मांस केवल मांस ही नहीं होता

     (31 मार्च, 2017 को लिखित और फेसबुक पर प्रकाशित मेरी एक पोस्ट)
शोभा डे नाम की एक प्रख्यात लेखिका की टिप्पणी -
"
मांस तो मांस ही होता है, चाहे गाय का हो, या बकरे का, या किसी अन्य जानवर का......। फिर, हिन्दू लोग जानवरों के प्रति अलग-अलग व्यवहार कर के क्यों ढोंग करते है कि बकरा काटो, पर, गाय मत काटो । ये उनकी मूर्खता है कि नहीं......?"
इस पर एक कट्टर हिंदू की टिप्पणी
बिल्कुल ठीक कहा शोभा जी आप ने । मर्द तो मर्द ही होता है, चाहे वो भाई हो, या पति, या बाप, या बेटा । फिर, तीनो के साथ आप अलग-अलग व्यवहार क्यों करती हैं? क्या सन्तान पैदा करने, या यौन-सुख पाने के लिए पति जरुरी है ? भाई, बेटा, या बाप के साथ भी वही व्यवहार किया जा सकता है, जो आप अपने पति के साथ करती हैं । ये आप की मूर्खता और आप का ढोंग है कि नहीं.....? घर में आप अपने बच्चों और अपने पति को खाने-नाश्ते में दूध तो देती ही होंगी, या चाय-कॉफी तो बनाती ही होंगी...!
जाहिर है, वो दूध गाय, या भैंस का ही होगा । तो, क्या आप कुतिया का भी दूध उनको पिला सकती हैं, या कुतिया के दूध की भी चाय-कॉफी बना सकती हैं..? तो, दूध तो दूध, चाहे वो किसी का भी हो....!!
ये आप की मूर्खता और आप का ढोंग है कि नहीं......? .प्रश्न मांस का नहीं, आस्था और भावना का है । जिस तरह, भाई, पति, बेटा, बेटी, बहन, माँ, आदि रिश्तों के पुरुषों-महिलाओं से हमारे संबंध मात्र एक पुरुष, या मात्र एक स्त्री होने के आधार पर न चल कर भावना और आस्था के आधार पर संचालित होते हैं, उसी प्रकार गाय, बकरे, या अन्य पशु भी हमारी भावना के आधार पर व्यवहृत होते हैं । इसी विषय में एक सवाल :- "Save tiger" कहने वाले समाज सेवी होते हैं और "Save Dogs" कहने वाले पशु प्रेमी होते हैं । तब, "Save Cow" कहने वाले कट्टरपंथी कैसे हो गये.....?”
मेरा मंतव्य-

दर असल सारी समस्या यह है कि हम अपने दायरों से बाहर नहीं आना चाहते और अपनी अपनी आस्था को न्यायोंचित ठहराने के चक्कर में भाषा का तानाबाना बुन लेते हैं और खुद की पीठ थपथपाते है....
वस्तुतः उपर्युक्त दोनों व्यक्ति पशु-प्रेम से वंचित मानसिकता रखते हैं ..पहला व्यक्ति स्वच्छंद मांसाहारी है इसलिए उसके लिए जानवर केवल खाद्य पदार्थ के अतिरिक्त कुछ नहीं है ...और उसने अपने आपको न्यायोचित ठहराने का रास्ता ढूंढ निकाला... गाय-बध के विरोध करने वालों की आलोचना की आड़ में एक अकाट्य तर्क (उनकी नज़र में) ढूंढ निकाला ....संभवतः कई प्रशंसक भी रहें होंगे उनकी भावना की अभिव्यक्ति के...आखिर अन्य कई लोगों को भी तो मांस खाने की प्रक्रिया को मानवता और शोषण के दायरे से बाहर रखना है...दूसरे व्यक्ति की भावना बहुत अधिक जंगली और असंवेदनशील हो जाती है जब वह जानवरों का वर्गीकरण उनके दूध की गुणवत्ता/उपयोगिता के आधार पर करने लगता है...और तर्क बचकाना प्रतीत होता है जब वह कहता है कि मर्द बाप, भाई, पति के आधार पर व्यवहृत होता है...मेरे भाई, शोभाजी सिर्फ मांस का वर्गीकरण कर रही हैं..उस आधार पर तो आपको यह कहना चाहिए था कि बाप, भाई, पति के रूप में मर्द भले ही हो पर उनका मांस एक ही प्रकार का ही होता है...तुमने तो अपनी बात को न्यायोचित ठहराने के चक्कर में बाल की खाल निकालनी शुरू कर दी...’save cow’ वाले कट्टरपंथी इसीलिए हैं क्योंकि उन्होंने केवल एक जानवर के प्रति ही कट्टर रवैया अपनाया हुआ है.... वे गाय की उपयोगिता के कारण उसका उपयोग करने तथा अन्य जानवरों को निष्कृष्ट मानकर उनके बध को न्यायोचित ठहरा कर क्या शोषक की भूमिका में नहीं है ???
कभी ध्यान से देखना एक पानी में गिरी हुई नन्हीं सी चींटी पानी से बाहर निकलने के लिए..अपने जीवन को बचाने के लिए किस कदर छटपटाती है...उसे भी जीने की उतनी ही चाह है जितनी हमें...तो फिर इन जानवरों में उनकी उपयोगिता के आधार पर भेदभाव क्यों...??? एक कसाई की पकड़ में छटपटाते बकरे की आँखों में दर्द और खौफ को देखें...कितना निरीह और बेबस प्राणी....जानवरों की बढती आवादी को नियंत्रण के लिए उनकी हत्याओं को उचित बताने वाले अक्सर ये क्यों भूल जाते हैं कि मनुष्य की बढ़ती आबादी के नियंत्रण के लिए मानवीय तरीके अपनाए जा सकते हैं तो उनके लिए क्यों नहीं ...एक नन्हें से मुर्गे की कोमल टांगों को बाँध कर उसे उलटा हाथ में पकड कर जब कोई कम्यूनिस्ट शोषण और शोषक की कहानी बताता है तो वह कितना घिनौना, मक्कार और झूठा लगता है...Harsh M Krishnatrey

No comments: